राजस्थान/पुष्कर। प्रत्येक मांगलिक कार्य में श्री गणपति का पूजन होता है। पूजन की थाली में मंगल स्वरूप श्री गणपति का स्वस्तिक चिन्ह बनाकर उसके ओर छोर अर्थात् अगल बगल में दो-दो खड़ी रेखाएं बना देते हैं। स्वस्तिक चिन्ह श्री गणपति का स्वरूप है। और दो-दो रेखाएं श्री गणपति की भार्या स्वरूपा सिद्धि-बुद्धि एवं पुत्र स्वरूप लाभ और क्षेम हैं। चतुर्थी तिथि में जन्म लेने का तात्पर्य ये है कि श्री गणपति बुद्धि प्रदाता है। अतः जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय-इन चार अवस्थाओं में चौथी अवस्था ही ज्ञानावस्था है। इस कारण बुद्धि (ज्ञान) प्रदान करने वाले गणपति का जन्म चतुर्थी तिथि में होना युक्तिसंगत है।
श्री गणपति का पूजन सिद्धि-बुद्धि लाभ और क्षेम प्रदान करता है। यही भाव इस चिन्ह के आसपास खड़ी दो रेखाओं का है। इस मंगल मूर्ति श्री गणेश स्वरूप का प्रत्येक अंग किसी न किसी विशेषता (रहस्य) को लिए हुए हैं। उनका वौना (ठिगना) रूप इस बात का द्योतक है। कि जो व्यक्ति अपने कार्य क्षेत्र में श्री गणपति का पूजन कर आरंभ करता है। उसे गणपति के इस ठगने कद से यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए कि समाजसेवी पुरुष सरलता, नम्रता आदि सद्गुणों के साथ अपने आप को छोटा लघु मानता हुआ चले जिससे उसके अंदर अभिमान उत्पन्न न हो। ऐसा व्यक्ति ही अपने कार्य में निर्विघ्नंता पूर्वक सफलता प्राप्त कर सकता है।
श्री गणपति गजेंद्र वदन हैं ।भगवान शंकर ने कुपित होकर इनका मस्तक काट दिया और फिर प्रसन्न होने पर हाथी का मस्तक जोड़ दिया। ऐसा पौराणिक वर्णन है। हाथी का मस्तक लगाने का तात्पर्य यही है कि गणपति बुद्धि प्रद हैं। मस्तक ही बुद्धि (विचार शक्ति) का प्रधान केन्द्र है। हाथी में बुद्धि, धैर्य एवं गंभीर का प्राधान्य है। वह अन्य जीवों की भांति खाद्य पदार्थों को देखकर पूँछ हिलाकर अथवा खूँटा उठाकर नहीं टूट पड़ता। किंतु धीरता एवं गम्भीरता के साथ उसे ग्रहण करता है। उसके कान बड़े होते हैं। इसी प्रकार साधक को चाहिए वो सुन सबकी ले, पर उसके ऊपर धीरता एवं गंभीरता के साथ विचार करे, ऐसे व्यक्ति की ही कार्य क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकते हैं।
श्री गणपति लंबोदर हैं। उनकी आराधना से हमें ये शिक्षा मिलती है कि मानव का पेट मोटा होना चाहिए अर्थात् वह सब की बुरी-भली सुनकर अपने पेट में रख ले। इधर-उधर प्रकाशित न करें समय आने पर यदि आवश्यक हो तो उसका उपयोग करें। गणपति का ‘एकदंत’ एक संगठन का उपदेश दे रहा है। लोक में ऐसी कहावत है भी प्रसिद्ध है कि अमुक व्यक्ति में बड़ी एकता है। “एक दांत से रोटी खाते हैं” इस प्रकार श्रीगणपति की साधना हमें एकता की शिक्षा दे रही है। यही अभिप्राय उनको मोद “लड्डू” के भोग लगाने का है। अलग-अलग बिखरी हुई बूंदी के समुदाय को एकत्र करके मोदक के रूप में भोग लगाया जाता है व्यक्तियों का संगठित समाज जितना कार्य कर सकता है।। उतना एक व्यक्ति से नहीं हो पाता। श्री गणपति को सिंदूर धारण कराने का यह अभिप्राय है कि सिंदूर सौभाग्य सूचक एवं मांगलिक द्रव्य है। अतः मंगलमूर्ति गणेश को मांगलिक द्रव्य समर्पित करना युक्तिसंगत ही है। दुर्वांकुर चढ़ाने का तात्पर्य यह है कि गज को दुर्वा प्रिय है। दूसरे दुर्वा में नम्रता एवं सरलता भी है। श्री गुरु नानक साहब कहते है। नानक नन्हें बनि रहो, जैसी नन्हीं दूब। सवै घास जरि जायगी, दूब खूब की खूब।।
श्री गणपति की आराधना करने वाले भक्त जनों के कुल की दूर्वा की भांति अभिवृद्धि होकर उन्हें स्थाई सुख सौभाग्य की सम्प्राप्ति होती है। श्री गणपति के चूहे की सवारी क्यों इसका तात्पर्य है कि मुषक का स्वभाव है वस्तु को काट देना का। वह यह नहीं देखता की वस्तु नई है या पुरानी। उसका दांत बढ़ता रहता है। बिना कारण ही उन्हें काट डालता है इसी प्रकार कुतर्की जन भी यह नहीं सोचते कि प्रसंग कितना सुंदर और हितकर है।वे स्वभाव बस चूहे की भांति उसे काट डालने की चेष्टा करेंगे प्रबल बुद्धि का साम्राज्य आते ही कुतर्क दब जाते है श्री गणपति बुद्धि है अतः उन्हें उन्होंने कुतर्क रूपी मूषक को वाहन रूप से अपने नीचे दबा रखा है।