नई दिल्ली। बिना खास मेहनत के विरासत के रुप में राजनीतिक वर्चस्व पा चुके राजनेताओं के पुत्र अपनी पार्टी की मिट्टी पलीत करने पर तुले हुए है। हालत यह है कि बड़बोलेपन, तुष्टिकरण, जाति धर्म और अन्य मुद्दों पर बकवासबाजी करने के साथ ही अपनी गलत हरकतों की वजह से जहां वह चर्चा में आ जा रहे है वहीं राजनीतिक ह्रास भी हो रहा है। यह सही है कि राहुल गांधी अपनी पार्टी कांग्रेस को संभालने में पूरी तरह से असफल साबित हो रहे है। कांग्रेस लगातार कमजोर हो रही है। उनके नेतृत्व में कांग्रेस दो दर्जन से अधिक चुनावों में हार चुकी है।
इसी प्रकार अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी भी कई चुनाव हार चुकी है। समाजवादी पार्टी अब बेहद कमजोर हो चुकी है। अखिलेश यादव के परिवार में भी सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है। अखिलेश के भाई प्रतीक की पत्नी अर्पणा यादव भाजपा में चली गयी है जबकि चाचा शिवपाल यादव का बगावती रूख भी जग जाहिर है। राजनीति में राजनेताओं के पुत्रों और पुत्रियों के ज्ञान, दूरदर्शिता और सम को देखकर निराशा ही होती है। इनकी राजनीतिक दूरदर्शिता वैसी नहीं है जैसी राजनीतिक दूरदर्शिता इनके माता-पिता और अन्य पूर्वजों की रही है।
वर्तमान राजनीति में सिर्फ अखिलेश और राहुल ही आत्मघाती राजनीति के नमूने नहीं है, बल्कि इसके नमूने और भी है। राहुल गांधी की बहन प्रियंका गांधी, लालू के पुत्र तेज प्रताप यादव, वसुंधरा राजे के पुत्र दुष्यंत सिंह, नीतीश कुमार के पुत्र निशांत कुमार, प्रकाश सिंह बादल के पुत्र सुखबीर सिंह बादल आदि इसके दर्जनों उदाहरण हैं। लालू के पुत्र तेज प्रताप यादव की नौटंकी कौन नहीं जानता है। तेजप्रताप ने अपनी हरकतों से राजनीति को प्रहसन बना दिया है। हरियाणा में भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के पुत्र दीपेन्द्र सिंह हुड्डा की भी राजनीति पर प्रश्न उठते रहे हैं। वंशवादी राजनीतिज्ञ अपने वंशजों को ऐशो आराम की जिंदगी देते हैं, पंच सितारा की संस्कृति देते हैं, पैसे के बल पर शिक्षा की डिग्रियां हासिल करा देते हैं।
प्राइवेट शिक्षा संस्थानों से पैसे के बल पर धनपशु और राजनीतिज्ञ मनमाफिक डिग्रियां खरीद लेते हैं। प्रश्न है कि आत्मघाती राजनीति में डूबे अखिलेश की जुबान फिसल जाती है। ज्ञानवापी पर उन्होंने कहा कि कही भी पत्थर रख दो, पत्थर पर सिंदूर लगा दो, मंदिर बन जायेगा। इसका सीधा अर्थ हिन्दुओं की भावनाओं को आहत करना है। पिछले विधानसभा चुनावों के दौरान वे अयोध्या गये लेकिन रामजन्म भूमि मंदिर में नहीं गये। जब मुख्य मंत्री थे तब उन्होंने अयोध्या में पंचकोशी परिक्रमा पर बल का प्रयोग किया था जिसमें कई संतों को चोटें आयी थी।
उन्होंने विदेश से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की थी परन्तु अपने शासनकाल के दौरान वे हज हाउस और कब्रिस्तान बना रहे थे। पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान उन्होंने कहा था कि उनके सपने में कृष्ण आते हैं और आश्वासन देते हैं कि तुम्हारी सरकार बनने वाली है। इसके खिलाफ भाजपा का कहना था कि फिर अखिलेश कृष्ण जन्मभूमि को मुक्त करने के लिए आगे क्यों नहीं आते हैं। चुनाव के दौरान जिन्ना को सेक्युलर और महान बता कर अखिलेश ने भाजपा को खूब आलोचना के लिए अवसर दिया। हिन्दुओं के आस्था के प्रतीक गौ अस्मिता के खिलाफ अनावश्यक बयानबाजी से भी बाज नहीं आये। दुष्परिणाम यह हुआ कि योगी के पक्ष में हिन्दू मतों की एकजुटता हुई और अखिलेश का सत्तासीन होने का सपना टूट गया।
2019 के लोकसभा चुनावों में फिर अखिलेश ने आत्मघाती निर्णय लिये। सपा और बसपा मिलकर चुनाव लड़े। बसपा को सपा से अधिक सीटें मिली। बाद में मायावती ने बयान दिया था कि सपा के कारण बसपा को प्रत्याशित सीटें नहीं मिली और भविष्य में कभी भी सपा के साथ समझौते नहीं करेगी। मुलायम सिंह यादव अपने भाइयों और अन्य रिश्तेदारों को साथ रखकर चलते थे। उनके अधिकतर राजनीतिक निर्णयों को उनके छोटे भाई शिवपाल यादव लागू कराते थे। शिवपाल यादव ने समाजवादी पार्टी को पूरे उत्तर प्रदेश में फैलाने और पार्टी की जड़ों को मजबूत करने की बहुत बड़ी भूमिका निभायी थी। शिवपाल यादव को अपमानित करने का कोई कसर अखिलेश ने नहीं छोड़ी। राजनीतिज्ञों के पुत्रों और पुत्रियों के लिए जनता का साफ संदेश है कि सिर्फ वंशवादी विरासत के बल पर सत्ता की चाभी नहीं मिलने वाली है। राहुल गांधी प्रतिदिन मोदी का विध्वंस करने का सपना देखते हैं, लालू का परिवार पिछले सत्रह सालों से सत्ता से दूर है। अखिलेश भी अब फिर पांच साल तक सत्ता से दूर रहेंगे। इसलिए राजनीतिज्ञ पुत्रों-पुत्रियों को अब खुशफहमी में नहीं रहना चाहिए कि सिर्फ वंशवादी विरासत के बल पर सत्ता मिल जायेगी।