लखनऊ। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ का एससी- एसटी एक्ट में दोष सिद्धि पर ही मुआवजा देने का आदेश अत्यन्त महत्वपूर्ण और प्रासंगिक फैसला है। न्यायमूर्ति दिनेश सिंह की एकल पीठ ने यह आदेश एक याचिका की सुनवाई के दौरान पारित किया, जिसमें याचियों ने उसके खिलाफ एससी-एसटी एक्ट के तहत दाखिल आरोप-पत्र और पूरे मुकदमे को इस आधार पर खारिज करने की मांग की थी उनकी वादी के साथ सुलह हो चुकी है और राज्य सरकार से वादी को मुआवजा के तौर पर 75 हजार रुपए मिल चुके हैं।
इसका समर्थन वादी ने भी किया और न्यायालय ने याचिका स्वीकार कर लिया, लेकिन न्यायालय ने जो टिप्पणी की वह विचारणीय है। इस तरह के मामले आए दिन कोर्ट के समक्ष आ रहे हैं, जिसमें मुआवजे का पैसा मिलने के बाद पीड़ित का अभियुक्त से सुलह करने की बात कही जाती है। यह उचित नहीं है।
यदि सुलह-समझौते और मुआवजे से ही मामले का निबटारा हो जाता है तो उसे अदालत तक लाने की क्या आवश्यकता है। एससी-एसटी एक्ट का कानून बहुत कड़ा है जिसका सदुपयोग से ज्यादा दुरुपयोग हो रहा है। पुरानी रंजिश में इस एक्ट का उपयोग एक हथियार के रूप में किया जा रहा है, जिसमें किसी अनुसूचित जाति-जनजाति के व्यक्ति को पैसे देकर मोहरा बनाया जाता है और फर्जी मुकदमा पंजीकृत किया जाता है जो बाद में सुलह-समझौते और मुआवजा देकर निबटा दिया जाता है।
इससे अनावश्यक रूप से अदालतों पर मुकदमों का बोझ बढ़ता है जिससे अन्य मुकदमों की कार्यवाही प्रभावित होती है। ऐसे में एससी-एसटी एक्ट के मामलों में उच्च न्यायालय का फैसला उचित है। इस तरह के मामलों की विवेचना निष्पक्षता और पारदर्शिता के साथ होनी चाहिए। इससे फर्जी मुकदमों पर रोक लगेगी और न्यायपालिका की शुचिता भी बनी रहेगी।