नई दिल्ली। कुछ दिनों पहले लोकसभा में गृह राज्यमंत्री अजय कुमार मिश्र की ओर से पेश किए गए आंकड़े ने किसानों की एक सच्चाई को उजागर कर दिया है। उन्होंने बताया कि पिछले तीन वर्षों में 17 हजार से अधिक किसानों ने आत्महत्या कर लिया। कृषि प्रधान देश में किसानों की स्थिति इतनी बदतर है, इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहे जाने वाले किसान और कृषि क्षेत्र का कोई पुरसाहाल नहीं है। किसानों को अन्नदाता, भूमि पुत्र, धरती के लाल, धरती के भगवान और ना जाने कौन-कौन सी उपाधि तो दी जाती है लेकिन सच्चाई यह है कि उन्हें खुद अपने दो वक्त की रोटी के बंदोबस्त के लिए धूप, बरसात या कड़क जाड़े में भी जी तोड़ मेहनत करना पड़ता है। किसानों की जिंदगी में कभी भी चैन नहीं है। बंपर फसल होने पर जहां लागत और बिक्री मूल्य के लाले पड़ जाते हैं, वहीं जिस साल भाव अच्छे होते हैं उस साल अतिवृष्टि और अनावृष्टि उनकी उम्मीदों पर पानी फेर देती है। किसान की सच्चाई यही है कि वह कर्ज में ही जन्म लेता है, कर्ज में ही बड़ा होता है और कर्ज में ही मर जाता है। यह विडंबना ही कहा जाएगा कि सरकारी आंकड़ों में कृषि पैदावार लगातार बढ़ रही है जबकि सच्चाई यह है कि किसानों की लागत निकालना भी मुश्किल हो रहा है। लागत मूल्य तो लगातार बढ़ता जा रहा है लेकिन उनकी आमदनी घटती जा रही है और कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है। खास बात यह है कि सरकार के पास किसानों की बदहाली से निपटने के लिए ना तो कोई सुनियोजित योजना है और न ही कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति ही दिखाई दे रही है। जब- जब चुनाव नजदीक आते हैं तो किसानों को सस्ता कर्ज और कर्ज माफी का तोहफा देकर उनका वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल तो कर लिया जाता है लेकिन बाद में उनकी स्थिति ज्यों की त्यों ही बनी रह जाती है। देश के अलग-अलग कोनों से मंडियों के बाहर फसलें फेंकने और उन्हें खेत में नष्ट किए जाने की जो तस्वीरें आई वह किसानों के दर्द को बयां करती रही। कम कीमत के कारण मुनाफा तो दूर उपज को मंडी ले जाने का खर्च भी नहीं निकल पाता है। ऐसे में किसान कर्ज से दबे किसान आत्महत्या करने को मजबूर होते हैं। यही कारण है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि क्षेत्र की भागीदारी लगातार घटते हुए मात्र 13% ही रह गई है कृषि और कृषक को केंद्र में रखकर यदि कोई सरकार गंभीर की ओर से गंभीर नीति बनाई गई होती तो आज किसानों की यह दशा नहीं होती।