नई दिल्ली। आज के परिवेश में राजनीति की सार्थकता तलाशना मुश्किल हो रहा है। यह सच है कि अनेक जगह राजनीतिक नेतृत्व अब व्यवसाय बन गया है। पहले नेता पिता का पर्याय था और आज नेता शब्द एक गाली बनता जा रहा है। इस दौर में राजनीति में ईमानदारी को नहीं, उलटे सीधे त्रिकोण से प्राप्त सफलता एवं सत्ता प्राप्ति को एकमात्र राजनीतिक एवं मानवीय गुण माना जाता है। इन स्थितियों ने हमारे नैतिक प्रयासों एवं लोकतांत्रिक मूल्यों के सामने एक सवालिया निशान लगा दिया है।
पश्चिम बंगाल में छापेमारी में प्राप्त अकूत धन शिक्षक भर्ती घोटाले की रकम बताई जा रही है। ऐसे बेहिसाब धन की बरामदगी भ्रष्टाचार मुक्त शासन का वादा और दावा करने वालों पर सवाल खड़े करती है। आम आदमी की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह रिश्वत मांगने वालों का विरोध करें। जब कोई भी सरकारी काम बिना रुकावट के हो रहा है, तब जल्दबाजी एवं पहले काम करवाने के चक्कर में रिश्वत दे दी जाती है।
बहुत कम लोग रिश्वत न देने के लिए संघर्ष करते हैं, अधिकतर लोग यही सोचते हैं कि पैसे देकर अपना काम करा लो। पश्चिम बंगाल में नोटों का अंबार इसीलिए मिला क्योंकि लोग नेता और अफसर को पैसा देकर काम करवाने को तरजीह देते हैं। सोचना होगा कि पश्चिम बंगाल सरीखी रोकड़े की बारिश के लिए, क्या हम लोग भी कुछ हद तक जिम्मेदार नहीं हैं।
देश में आसमान छूती राजनीतिक लूट के कई कारण हैं। भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। हर पांच वर्ष में लोकसभा के लिए चुनाव होते हैं। इसी तरह हर पांच वर्ष में राज्यों में विधानसभा के चुनाव होते हैं। चुनाव खर्च के लिए नेता भ्रष्टाचार अपनाते हैं। राजनीति में भ्रष्टाचार अपने चरम पर है।
आज हर विभाग भ्रष्टाचार के जंजाल में फंसा हुआ है। जनता द्वारा चुने गए नेता भ्रष्टाचार को बढ़ावा देकर लोकतंत्र की जड़ें खोद रहे हैं। अपने चहेतों को क्लीन चिट देने के लिए कानूनों एवं नियमों में फेरबदल किए जाते हैं। इसके उपरांत भी यदि जनता मूकदर्शक है तो हालात बिगड़ेंगे ही। राजनीति और भ्रष्टाचार अपने देश ही नहीं, वरन् समूची दुनिया में एक- दूसरेका पर्याय बन चुके हैं। आज देश में बढ़ते भ्रष्टाचार का प्रमुख कारण शीर्ष नेताओं का भ्रष्ट लोगों को संरक्षण देना भी है।
बड़े स्तर पर भ्रष्टाचार कभी भी किसी एक छुटभैया नेता के अकेले के बस की बात तो कतई नहीं है। चुनावों के बढ़ते खर्च के चलते पार्टियों के शीर्ष नेतृत्व अपने नीचे के नेताओं के कुकृत्यों की अनदेखी करते हैं। भ्रष्ट और आपराधिक प्रवृत्ति के लोग राजनीतिक दलों के टिकट लेने से लेकर चुनाव में वोट बटोरने तक पैसों का इस्तेमाल करने लगे हैं। वर्तमान में पैसा ही किसी व्यक्ति के मान-सम्मान का प्रतीक हो गया है। भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए जनता का लामबंद हो कर एक आंदोलन की आवश्यकता है।