नई दिल्ली। वैश्विक महामारी के रुप में आई कोरोना महामारी ने लोगों को जीवन की कई पहलूओं से रू-ब-रू कराया। जहां एक ओर लोग कोरोना महामारी से जूझते हुए जीवन-मरण का संघर्ष कर रहे थे तो दूसरी ओर कुछ लोग सम्पूर्ण मानवता को धता बताकर इस अवसर को भी मुनाफे में बदलने में जुटे थे।
मानवता को कलुषित करने का इससे बड़ा दूसरा उदाहरण नहीं हो सकता। पिछले दिनों न्यायालय में दाखिल जनहित याचिका के पहले तक तो यही माना जा रहा था कि कोरोना काल में मानवता के कुछ दुश्मन इंजेक्शन की कालाबाजारी, नकली इंजेक्शन बेचने, अस्पतालों में भरे हुए बेड बताकर लोगों की मजबूरी का फायदा उठाने या फिर बेड, आक्सीजन सिलेण्डर एवं अन्य बहानों से अनाप- शनाप पैसा लूटने में ही लगे थे।
लेकिन बुखार की एक छोटी- सी गोली के माध्यम से देश में इतना बड़ा खेल होना बेहद दुखद, निराशाजनक और माफियाओं के गठबंधन को उजागर करने वाला है। देश के सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका की सुनवाई कर रही दो सदस्यीय पीठ के सदस्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी. वाई. चन्द्रचूड की यह टिप्पणी कि कोरोना महामारी के दौरान उन्हें भी डाक्टरों ने डोलो 650 लेने को कहा था, इसकी गम्भीरता को समझा जा सकता है।
किसी जमाने में डोलोपार के नाम से आने वाली दवा में कुछ बदलाव कर डोलो 650 के नाम से बाजार में आई। बुखार के लिए परासिटामोल जेनेरिक दवा है। इसके साल्ट में ही अन्य साल्ट का इजाफा कर बाजार में ब्राण्डेड दवाइयां बनाई जाती है। कालपोल, क्रोसिन और इसी तरह की अन्य दवाएं बाजार में जानी मानी रही है परन्तु कोरोना काल में एकाएक डोलो 650 चिकित्सकों की पसंदीदा दवा बन गई। जहां देखों वहीं बुखार की दवा के रूप में डोलो 650 का नाम ही सुनाई देने लगा।
हालांकि दबी जुबान में खास तौर से सरकारी संस्थानों में डाक्टर्स पेरासिटामोल को ही सबसे अधिक कारगर दवा बताते रहे परन्तु गम्भीरता का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि कोरोना काल में मोटे अनुमान के अनुसार प्रतिदिन 55 लाख डोलो 650 गोलियां बिकने लगी। यदि जानकारों की माने तो इससे प्रतिदिन 86 लाख रुपए की कमाई हुई। हो सकता है यह आंकड़े अतिशयोक्तिपूर्ण हो। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार मार्च 2020 से दिसबंर 2021 की अवधि में 567 करोड़ रुपए की डोलो 650 दवा की बिक्री हुई।
इस 22 माह में बिकी डोलो 650 की गोलियों को एक के ऊपर एक रखा जाय तो यह माउंट एवरेस्ट और बुर्ज खलीफा की ऊंचाई से हजारों गुणा अधिक ऊंची हो जाती है। लगभग डेढ़ दशक पूर्व राजस्थान के वरिष्ठ आईएएस अधिकारी डा. समित शर्मा ने जेनेरिक दवाओं के उपयोग को लेकर अभियान चलाया।
उन्होंने यह समझाने का प्रयास किया कि जेनेरिक दवाएं एक ओर जहां सस्ती एवं आम आदमी की पहुंच में हैं वहीं यह उतनी ही कारगर भी है। हालांकि इसके बाद आज हालात बदले हैं सरकारी अस्पतालों में चिकित्सकों द्वारा अब अधिकतर जैनेरिक दवाएं लिखी जाने लगी है। राजस्थान में सरकारी अस्पतालों में अब दवाएं और अन्य सेवाएं निःशुल्क मिलने लगी है। केन्द्र सरकार द्वारा भी जन-औषधी केन्द्रों के माध्यम से जेनेरिक दवाओं को प्रोत्साहित किया जा रहा है। परन्तु इसमें कोई दो राय नहीं कि लोगों में अभी पूरी तरह से जेनेरिक दवाओं के प्रति विश्वास बन नहीं पाया है या यूं कहें कि जेनेरिक दवाओं की पहुंच अब तक आम आदमी तक उतनी नहीं हो पायी जितनी होनी चाहिए।