पुष्कर/राजस्थान। परम पूज्य संत श्री दिव्य मोरारी बापू ने कहा, महर्षि पतंजलि जी ने लिखा है- सन्तोषदुत्तमसुखलाभः। न हि सन्तोषसमं सुखम् , यथालाभेन सन्तोषः, अर्थात् संतोष से बड़ा धन और कोई नहीं है। इसके समान कोई सुख नहीं, कोई लाभ नहीं। संतोष आते ही मनुष्य का मन तृप्त हो जाता है। शास्त्रों ने कहा है÷ ‘ सर्वा सुखमया दिशः ‘ संतोष से दिशा और दशा सुखमय हो जाती है। संतोष से सभी दिशायें सुखमय होती हैं तो मानव की दशा स्वयमेव सुखी हो जाती है। जब दिशा ही ठीक न हो तो दशा ठीक कैसे हो सकती है। इसलिए संत और ग्रंथ चेतावनी देते हैं कि पहले दिशा संभालो अर्थात् लक्ष्य की दिशा और मार्ग ठीक रखो। आज के लोगों की जीवन यात्रा दिशाहीन सी प्रतीत होती है। आज किसी व्यक्ति से पूछें, ‘ आपका लक्ष्य क्या है?’ तो वह घबड़ा जाता है, शीघ्र उत्तर देने में स्वयं को असमर्थ पाता है। जब लक्ष्य अथवा दिशा, परिवार के सुख तक ही सीमित है तो दुःख का मिलना स्वाभाविक है क्योंकि रिश्ते दुःख का कारण हैं। पदार्थ की प्राप्ति भाग्य से होती है जो मानव के बस से बाहर है। इसके अतिरिक्त मानव की इच्छाएं असीम है और प्रत्येक इच्छा की पूर्ति असंभव है। ऐसी स्थिति में मानव तनाव और कुंठा का शिकार हो जाता है। यदि आप तनाव में जी रहे हैं तो समझ लें कि आप महत्वाकांक्षी हैं। बहुत पाने की चाह में आप राह भटक जाते हैं। अतः संतोष ही इस दर्द की रामबाण दवा है। संतो ने ठीक ही कहा है- रूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पी। देख पराई चोपड़ी न तरसावै जी।। इसी प्रकार का दोहा संतवाणी में दूसरा भी है।- गोधन गजधन बाजिधन और रतनधन खान। जब आवे संतोष धन सब धन धूलि समान।। ‘ संतुष्टस्य निरीहस्य स्वात्मारामस्य यत्सुखम् ‘ अर्थात जो व्यक्ति स्वयं में संतुष्ट हो चुका है और जो आत्मा, परमात्मा में रमण करने का अभ्यासी हो चुका है, उसे हर दिशा सुखमय नजर आती है। एक आदमी यह चाहता है कि वह संसार में प्रत्येक गली या सड़क पर फोम लगवा दे ताकि चलने में सुविधा हो, पांव नरम रहें।यह कार्य असंभव है। परंतु हां यदि आप फोम की पावड़ी बनवा लें अथवा अपनी बावड़ी में फोम चिपका लें तो जहां पांव रखेंगे वहां पांव नर्म ही रहेंगे। संसार को सुधारने की अपेक्षा स्वयं को सुधार लो, इसी में भलाई है। अतः संसार के सुखों की न पूरी होने वाली लालसा को संतोष रूपी धन से निपटा जा सकता है। संतोष परमसुख है। संसार के सुखों से निराशा ही हाथ लगती है, जिसको संसार के बहुत सुख चाहिए नहीं चाहिए वह परम सुखी है। आशा हि परमं दुःखं नैराश्यं परमं सुखम्। यथा संछिद्य कांताशां सुखं सुष्विवाप पिंगला।। परमार्थ के पथ पर चलने के लिये संतोष उतना ही आवश्यक है जितने नेत्र आवश्यक हैं।सभी हरि भक्तों के लिए पुष्कर आश्रम एवं गोवर्धन धाम आश्रम से साधू संतों की शुभ मंगल कामना। श्री दिव्य घनश्याम धाम, श्री गोवर्धन धाम कालोनी, दानघाटी, बड़ी परिक्रमा मार्ग, गोवर्धन-जिला-मथुरा, (उत्तर-प्रदेश) श्री दिव्य मोरारी बापू धाम सेवाट्रस्ट गनाहेड़ा पुष्कर जिला-अजमेर (राजस्थान)