Puskar/Rajasthan: परम पूज्य संत श्री दिव्य मोरारी बापू ने कहा कि श्रीमद्भागवत महापुराण में रासलीला की कथा से प्रेरणा लें और जीवन को आनंदमय बनायें। परमात्मा के रंग मंच पर हम सब अभिनेता है, सूत्रधार भगवान हैं। सूत्रधार की जो भी इच्छा हो हम उसी में सुर मिलाते हुए आनंद से नृत्य करें। जीवन की प्रत्येक क्रिया आनंदमय होनी चाहिए।
बच्चा जब भोजन करने बैठता है तब उसको रुलाना नहीं चाहिये। प्रसन्नचित होकर वह भोजन करे तो वह उसके स्वास्थ्य के लिये ठीक है। ऐसा नहीं होगा तो विपरीत असर होगा। अन्न विष बन जायेगा। मन में क्रोध हो, मन प्रसन्न न हो। ऐसी मानो स्थिति में भोजन करेंगे तो विपरीत असर होगा। भोजन करने बैठो तब यज्ञभाव से भोजन करो। जिसके कारण भूख लगती है यह
वैश्वानर अग्नि हम-सबके उदर में है। हम जब भोजन करते हैं तो उसको ही आहुति देते हैं। ऐसे भाव से यदि भोजन करेंगे तो यज्ञ का फल मिलेगा।
सनातन धर्म में कमाई का दशांश दान अर्थात परोपकार में लगाने की बात कही गयी है। वही कमाई सार्थक मानी गई है। स्थायी रह पाती है। परोपकार की, सेवा की प्रवृत्ति केवल मनुष्य में पायी जाती है।
दान के अनेक स्वरूप हैं- जैसे धन, ज्ञान, विद्या, समय आदि। निःस्वार्थ परोपकार, सेवा दान को आदर्श माना गया है, इसके पीछे किसी प्रतिफल, मान-सम्मान, प्रचार आदि की कामना नहीं होती। इसे गुप्त दान कहा गया है।
आज व्यक्ति गलत सही ढंग से अपार धन कमाता है और उसमें से कुछ धनराशि जन सुविधाओं तथा धार्मिक कार्यों में खर्च कर अपनी को दानी समझ लेता है। समाज भी ऐसे व्यक्ति को दानवीर की संज्ञा देने में नहीं हिचकता। तर्क यह दिया जाता है कि भले ही धन गलत रीति से कमाया हो, आखिर जनोपयोग में तो आता है। यह एक प्रकार का भ्रमजाल है। गलत रीति से धन की कमाई से उसने जो समाज का बड़ा अनिष्ट किया है, भ्रष्टाचार फैलाया है, उसके सामने यह दानधर्म नगण्य है।
अनीति की कमाई से दान करने, धार्मिक समारोह करने से अच्छा है जनता बिना सुविधाओं के रह जाये और इस पर नियंत्रण कर सके ताकि, उन्हें अपना वास्तविक हक स्वतः ही मिल सके।
पहले शिक्षा के क्षेत्र में गुरु परंपरा थी। आज इसमें भी व्यवसायिकता घुस गई है। आज का शिक्षक विद्या नहीं देता, विद्या देने के लिए नौकरी करता है,पूर्ण पारिश्रमिक लेता है और उसे बढ़ाने के लिए हड़ताल तक करने में नहीं चूकता। प्रश्नपत्र आउट होते हैं, रिश्वत लेकर अंक बढ़ाये जाते हैं, सरेआम डिग्रियां बिक रही हैं। कहां गई विद्यादान की आदर्श परंपरा? जब वह स्वयं नौकर हैं तो बदले में आदर्श शिष्य नहीं, नौकर ही पैदा करता है, जिसकी बाढ़ आज स्पष्ट नजर आती है और हड़तालें होती हैं।
साहित्यकार श्री भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने भी लिखा है-
दुनियां एक रंग मंच है, इस पर हर कोई अभिनेता है।
अपना-अपना अभिनय करके, हर कोई चल देता है।।
किसी को पुत्र का अभिनय मिला है, किसी को पिता का अभिनय मिला है। इस संसार मंच पर जिसको जो अभिनय मिला है उसको सही-सही ढंग से निर्वाह करने से,इस लोक अर्थात् संसार में भी जय जयकार होगी और परलोक यानि परमात्मा के यहां भी जय जयकार होगी।
सभी हरि भक्तों को पुष्कर आश्रम एवं गोवर्धनधाम आश्रम से साधु संतों की शुभ मंगल कामना, श्री दिव्य घनश्याम धाम, श्री गोवर्धन धाम कॉलोनी, बड़ी परिक्रमा मार्ग, दानघाटी, गोवर्धन, जिला-मथुरा, (उत्तर-प्रदेश) श्री दिव्य मोरारी बापू धाम सेवा ट्रस्ट, गनाहेड़ा, पुष्कर जिला-अजमेर (राजस्थान)।