नई दिल्ली। पर्यावरण प्रदूषण आज पूरे विश्व के लिए सबसे बड़ी समस्या है। जलवायु परिवर्तन से स्थिति और भी विषम हो गई है। इसके लिए ठोस और सार्थक कदम उठाने की जरूरत है। इस दिशा में संयुक्त राष्ट्र महासभा में स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण को मानवाधिकार घोषित किया जाना समयानुकूल है।
वर्ष 1972 में पहली बार पर्यावरणीय मुद्दों को जोर –शोर से उठाया गया था और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सम्मेलन में घोषणा- पत्र जारी किया गया था। पांच दशक के लम्बे संघर्ष के बाद हाल ही में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने उस ऐतिहासिक प्रस्ताव को पारित कर दिया जो स्वच्छ, स्वस्थ और टिकाऊ पर्यावरण को मानवाधिकार के रूप में मान्यता देता है।
प्रस्ताव के पक्ष में 161 देशों ने मतदान किया जबकि चीन समेत आठ देश मतदान से दूर रहे। भारत ने प्रस्ताव के पक्ष में मत दिया लेकिन इसकी प्रस्तावना से खुद को अलग करते हुए इसकी प्रक्रिया और सार पर चिन्ता व्यक्त की है। भारत की चिन्ता उचित और गम्भीर चिन्तन का विषय है, क्योंकि प्रस्ताव में स्वच्छ, स्वस्थ और टिकाऊ की परिभाषा स्पष्ट नहीं है।
सभी ने अपनी समझ से इसे परिभाषित किया है। इससे घोषित मान्यता का उद्देश्य कमजोर पड़ता है। साथ ही यह प्रस्ताव देशों के लिए कोई बाध्यकारी दायित्व तय नहीं करता। भारत की चिन्ता का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि यह प्रस्ताव अन्तरराष्ट्रीय पर्यावरण कानून के सिद्धान्तों के अन्तर्गत पर्यावरण समझौतों के क्रियान्वयन की जरूरत की पुष्टि तो करता है लेकिन अन्तरराष्ट्रीय कानून में समानता के मूलभूत सिद्धान्तों का सन्दर्भ स्पष्ट नहीं करता।
भारत की चिन्ताएं और आपत्तियों पर गम्भीरता से विचार किए जाने की जरूरत है। मानवाधिकार वाले बयान को आधिकारिक रिकार्ड में शामिल किया जाना चाहिए। पर्यावरण साफ और स्वस्थ रखने के संकल्प को बाध्यकारी बनाने की आवश्यकता है तभी इस प्रस्ताव का अपेक्षित परिणाम धरातल पर दृष्टिगोचर होगा।