परहित और प्रभु सुमिरन का महत्व

अध्यात्म। गुरु नानकदेव जी अपने पास सत्संग के लिए आने वालों से कहा करते थे, ‘शुभ कर्म करो, प्रभु सुमिरन करो एवं जो मिले, उसे बांटकर खाओ। वह सदाचार पर बहुत बल दिया करते थे। एक दिन एक धनी व्यक्ति गुरु जी के दर्शन के लिए पहुंचा और उनके चरणों में बैठकर श्रद्धापूर्वक उनका उपदेश सुनने लगा।

गुरु जी लोगों को प्रेरणा देते हुए कह रहे थे कि जो व्यक्ति धनाढ्य होते हुए भी किसी दुखी इंसान की मदद नहीं करता, उसे कालदूतों का उत्पीड़न सहना पड़ता है। जो सेवा में धन लगाता है, सद्कर्म करता है, उसे इस लोक में तो ख्याति मिलती ही है, परमात्मा की भी कृपा प्राप्त होती है। शांति और कल्याण चाहते हो, तो अपना धन सद्कर्मों में लगाओ।

सत्संग के बाद वह व्यक्ति नानकदेव से बोला, ‘मैं धनी हूं। कंजूस होने के कारण धन संचय में लगा रहता हूं। मेरे कल्याण का सहज समाधान बताने की कृपा करें। गुरु जी ने कहा, ‘यदि

सच्ची शांति और कल्याण चाहते हो, तो अपना धन सेवा, परोपकार जैसे सद्कर्मों में लगाओ। कुआं खुदवाओ, लंगर लगाओ, अतिथियों की सेवा करो। ईश्वर का हर समय सुमिरन करते रहो। यह लक्ष्मी मोहिनी है, छल रूप है। यह उसी का कल्याण करती है, जो सदाचारी और परोपकारी होता है।’ धनिक ने उसी दिन से धन का सदुपयोग करना शुरू कर दिया। इसके बाद वह सुखी रहने लगा क्योकि उसे आत्मिक संतोष मिलने लगा। जिस व्यक्ति के भीतर परहित का भाव आ जाता है वह इस संसार में रहते हुए भी बगवान के सानिध्य में रहता है।

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