नई दिल्ली। चुनाव आने पर तथा इसके पहले राजनीतिक दलों की मुफ्त के उपहारों का प्रलोभन स्वस्थ लोकतंत्र के मूल्यों के विपरीत है। सर्वोच्च न्यायालय का इस पर रोक लगाने के लिए विशेषज्ञ समिति बनाने का सुझाव उचित और प्रासंगिक है। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एन.वी. रमना की अध्यक्षता वाली तीन जजों की पीठ ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि केन्द्र सरकार और निर्वाचन आयोग इससे पल्ला नहीं झाड़ सकते।
इसके नफा-नुकसान पर गौर करना होगा। चुनावों में जीत हासिल करने और सत्ता पर काबिज होने के लिए राजनीतिक दल तरह- तरह के प्रलोभन के हथकण्डे अपनाते हैं, जो मौजूदा दौर में राजनीतिक विकृति के रूप में विकसित हो रही है। शीर्ष न्यायालय का यह कहना भी कटु सत्य है कि चुनावी रेवड़ियों को बंद करने के लिए कोई भी राजनीतिक दल संसद में बहस के लिए तैयार नहीं होगा।
ऐसे में यह जरूरी हो गया है कि समिति बनाई जाय जो सरकार को इस समस्या से निबटने और चुनाव की शुचिता को बनाये रखने के लिए सिफारिशें दे सके। इस सम्बन्ध में शीर्ष न्यायालय ने सरकार और निर्वाचन आयोग से एक सप्ताह में सुझाव मांगा है। मुफ्त की संस्कृति निश्चित रूप से एक गंभीर मसला है। सभी राजनीतिक दल सुविधाओं का वादा तो करते हैं लेकिन यह नहीं बताते कि इसके लिए धन कहां से आएगा।
दलों को रेवड़ियों के वितरण से होने वाले घाटे पर ध्यान देना होगा, क्योंकि यह अप्रत्यक्ष रूप से भविष्य की आर्थिक आपदा का कारण बनता है, जो देश के विकास की बड़ी बाधा है। इसे राजनीतिक प्रदूषण कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा। इससे जनमत प्रभावित होता है। राजनीतिक दलों में जिस तरह मुफ्त की सुविधाएं उपलब्ध कराने की होड़ दिख रही है इसे रोकने के लिए सरकार और निर्वाचन आयोग को कड़े और सार्थक कदम उठाने की जरूरत है।