नई दिल्ली। राष्ट्रीय सहारा अखबार के एडिटर इन चीफ/ सीईओ उपेन्द्र राय ने हस्तक्षेप में अपने लेखों को एक किताब का स्वरूप दिया है। इस किताब का नाम भी हस्तक्षेप है। उपेन्द्र राय के लेखों के दायरा व्यापक है। राजनीति , विदेश नीति, सामाजिक मसलों से लेकर अर्थव्यवस्था पर उन्होने कलम चलायी है और अपने समय के हर महत्वपूर्ण विषय पर उनकी नजर है। हिंदी के बौद्धिक जगत में हस्तक्षेप का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है। एक ही विषय से जुड़े विभिन्न आयामों पर तरह-तरह के दृष्टिकोणों को जगह देने का काम यह परिशिष्ट करीब तीन दशकों से कर रहा है। एक ही विषय पर विपरीत दृष्टिकोणों को भी यहां जगह मिलती है। सिविल सर्विसेज की परीक्षाओं के विद्यार्थियों के लिए हस्तक्षेप ज्ञान कोष है, तो विचारों की विविधता की पड़ताल भी हस्तक्षेप के जरिए की जा सकती है।
नए बदलाव से लौटेगा पुराना भरोसा –(पेज नंबर 29) इस लेख में उपेन्द्र राय स्टार्ट अप कारोबारों से जुड़ी कुछ तल्ख सच्चाईयां विश्लेषित करते हैं। इस लेख में उन परेशानियों को रेखांकित किया गया है। वह इसी लेख में लिखते हैं, उदारीकरण 1992 में शुरू हुआ था और पिछले 27 साल की उपलब्धि यह है कि हमारी प्रति व्यक्ति आय चार गुना हुई है। वैचारिक लेखन में संतुलन बनाए रखना जरूरी है पर यह मुश्किल काम होता है। सीईओ उपेंद्र राय का हस्तक्षेप संतुलन को बनाये रखता है। अतिरेक से बचता है। जम्हूरियत में अराजकता की इजाजत नहीं– पेज नंबर 120 में श्री राय जो रेखांकित करते हैं, वह हमारे वक्त के लिए बहुत महत्वपूर्ण ताकीद है। वह लिखते हैं-लोकतंत्र अगर विरोध का अवसर देता है, तो विरोध के विरोध में खड़े होने का अधिकार भी देता है।– इधऱ लोकतांत्रिक संवाद की गुंजाईश लगातार संकुचित हुई है। जो हमारे साथ नहीं है, वह देशद्रोही है या पूंजीपतियों का कीड़ा-इस किस्म की वैचारिक असहिष्णुता लगातार दिखाई दे रही है। टीवी चैनलों की डिबेट से लेकर कई किस्म के लेखन तक। लोकतंत्र में असहमति के अधिकार के साथ सुनने का धैर्य विकसित करना होता है। हर हाल में रोके जाएं ऐसे हिंसक उन्माद-पेज 166 – इस लेख में उपेन्द्र जी ने बहुत सार्थक और सटीक तरीके से महात्मा गांधी के एक लेख की याद कराते हैं- लोकशाही बनाम भीड़शाही। यह लेख 1920 में यंग इंडिया में बापू ने लिखा था। 29 फरवरी, 2020 को प्रकाशित अपने लेख में श्री राय बापू के सौ साल पुराने लेख की याद करते हैं उस वक्त, जब लोकशाही और भीड़शाही का फर्क कई बार मिटा हुआ दिखता है। कुछ लोग अपनी मन मरजी से हाई वे रोक देते हैं, सड़कें रोक देते हैं। एहतियात से दूर होगा कोरोना का रोना-पेज 176 – इस खास लेख में उपेंद्र राय लिखते हैं कि सवाल सिर्फ स्वास्थ्य का नहीं, देश और दुनिया की आर्थिक सेहत पर मंडरा रहे खतरे का भी है। 7 मार्च 2020 को प्रकाशित इस लेख में उपेन्द्र राय कोरोना के आर्थिक आयामों की ओर इशारा कर रहे हैं। मार्च 2020 में कोरोना के आर्थिक परिणामों पर बहुत कम लोगों की निगाह जा रही थी। कोरोना को मूलत सेहत की महाआपदा के तौर पर चिन्हित किया जा रहा था। अब साफ हो रहा है कि यह सिर्फ सेहत आपदा नहीं थी, यह आर्थिक आपदा भी थी और एक हद तक अब भी है। बात से ही बनेगी “बात”-पेज 435- इस लेख में उपेन्द्र राय चीन के संदर्भ में लिखते हैं कि हम उसका सामान लेखना बंद कर दें तो उसका नुकसान मामूली ही होगा। इस लेख में भारत चीन आर्थिक संबंधों का विश्लेषण करते हुए श्री राय कहते हैं कि आर्थिक हकीकतों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यानी चीनी आइटमों का बायकाट कर दो या चीन से युद्ध छेड़ दो-जैसी अतिरेकी बातों से भावनाओं को भले ही सहलाया जा सकता हो पर जमीनी स्तर पर समस्याएं इनसे नहीं खत्म होतीं। चीन ने पूरी दुनिया में अपना एक मुकाम बनाया है मेहनत करके। भारत को अभी वहां तक पहुंचने के लिए बहुत मेहनत करनी है। इस संग्रह के लेखों को एक साथ पढकर यह साफ होता है कि समग्र ज्ञान जरुरी है, चीन पर लिखना है, तो सिर्फ विदेश नीति का मसला नहीं है, अर्थव्यवस्था का विश्लेषण भी जरुरी है। यानी राजनीति, विदेश नीति, समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र का समग्र ज्ञान ही लेखन में गहराई और संतुलन लाता है। वरना लेखन एकायामी होने का खतरा बन जाता है। संतुलन ज्ञान से आता है, चीजों की गहरी समझ से आता है। गहरी समझ समग्र ज्ञान से आती है। भावनाओं के ज्वार में विचार का संतुलन बनाना बहुत मुश्किल काम होता है। पर परिपक्व लेखन इस बात की मिसाल होता है कि विचार का संतुलन जरुरी है। तथ्यों और तर्कों को परखना जरुरी है। उपेन्द्र राय अपने समय के मसलों पर तीखी नजर रखते हैं और उन पर नियमित लेखन करते हैं। इस तरह के और संग्रहों की उम्मीद उनसे भविष्य में की जा सकती है।
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