नई दिल्ली। जलवायु परिवर्तन एक ऐसा विषय है कि इसको लेकर दुनिया के वैज्ञानिकों और शासनतंत्र के बीच कई वर्षों से चर्चा चल रही है। इधर हालत यह है कि जिन इलाकों की जलवायु कभी ठण्डी थी, वहां का तापमान इस हद तक बढ़ चुका है कि गर्मी के कारण बड़ी संख्यामें लोगों की असामयिक मौत हो रही है। इस साल मई- जून में ऐसी खबरें आई थीं कि ब्रिटेन और स्पेन सहित पश्चिमी यूरोप के कई देशों में भंयकर लू चली।
तापमान ब्रिटेन में 40 डिग्री सेल्शियस से ऊपर तक दर्ज किया गया। स्पेन में तो पारा 45 डिग्री तक पहुंचने पर भीषण गर्मी और लू लगने से सैकड़ों लोगों की मौत हो गई। सऊदी अरब जैसे रेगिस्तानी इलाके में बाढ़ आने की घटना हो या फिर भारत में पानी की प्रचुर मात्रा में उपलब्धता वाले इलाकों सूखे की समस्या, समुद्र तटीय क्षेत्रों में अधिक बरसात की घटनाएं, यह सभी जलवायु परिवर्तन की तरफ ही इशारा कर रही हैं। विश्व ने पश्चिमी देशों की विकास की जिस अवधारणा को अपनाया है, वास्तव में वह हमें ‘विकास’ नहीं ‘विनाश’ के रास्ते पर ले जा रही है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से
धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है। इसकी वजह से उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव जैसे इलाकों के विशाल ग्लेशियर पिघल रहे हैं। समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है। बड़े शहरों में वायु और ध्वनि प्रदूषण की समस्या से करोड़ों लोग हर साल गम्भीर बीमारियों का शिकार हो रहे हैं। विकासशील और गरीब देशों में प्लास्टिक का कचरा भी गम्भीर प्रदूषण पैदा कर है।
खेती में उत्पादन बढ़ाने के लिए तरह-तरह के उर्वरकों और कीटनाशकों का बेतहाशा और अवैज्ञानिक इस्तेमाल भी कई गम्भीर बीमारियों का कारण बना है। भूजल का स्तर भी तेजी से नीचे गिर रहा है। जल की समस्या दिनों दिन गम्भीर होती जा रही है। दुनिया भर में जंगलों का दायरा सिमटता जा रहा है। दुनिया में वनों का दायरा 60 प्रतिशत से अधिक कम हुआ है।
जर्नल एनवार्यन्मेंटल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित एक ताजा अध्ययन में यह दावा किया गया है। अध्ययन के अनुसार, वनों का दायरा सिकुड़ने के कारण जैव- विविधता का भविष्य खतरे में पड़ चुका है। इसका सीधा असर दुनिया भर में रहने वाले 1.6 अरब लोगों के ऊपर पड़ा है। 1960 में वनों का दायरा 1.4 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति था, जो 2019 में घटकर केवल 0.5 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति हो गया है।
कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय रिवरसाइड और नासा का अनुमान है कि इंसानी गतिविधियों के कारण पिछले 150 के दौरान वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा में 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। खनिज ईंधनों के अंधाधुंध इस्तेमाल के कारण वातावरण में मीथेन गैस, नाईट्स ऑक्साइड जैसी गैसों ने ग्रीन हाउस प्रभाव को तेज किया है।