नई दिल्ली। कोरोना महामारी के जिस दौर में लोग अपनी जिंदगी बचाने की जद्दोजहद में लगे थे, उसी समय भूख से बिलबिलाते 20 मकाऊ बंदर हमारे लिए जीवनरक्षक बनकर आए और संक्रमण से लड़ने के लिए कोवाक्सिन की संजीवनी दी। हालांकि इस संजीवनी को पाने में भारतीय वैज्ञानिकों और इन बंदरों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। कोवाक्सिन का पहला परीक्षण इन 20 बंदरों पर ही हुआ था। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के महानिदेशक डॉ. बलराम भार्गव ने अपनी किताब गोइंग वायरलः मेकिंग ऑफ कोवाक्सिन-द इनसाइड स्टोरी’ में इसका खुलासा किया है। किताब में न सिर्फ भारत में बने टीके के विकास की कहानी है, बल्कि विज्ञान की पेचीदगियों व महामारी के खिलाफ संघर्ष के दौरान भारतीय वैज्ञानिकों के सामने आईं चुनौतियों का भी जिक्र है। इनमें प्रयोगशालाओं का मजबूत नेटवर्क बनाने के साथ अनुसंधान, उपचार, सीरो सर्वे, नई तकनीकों के इस्तेमाल और टीके बनाने संबंधी चुनौतियां शामिल हैं। वह भार्गव लिखते हैं, एक बार जब हमें पता चल गया कि टीका छोटे जानवरों में एंटीबॉडी उत्पन्न कर सकता है, तो अगला महत्वपूर्ण कदम बंदर जैसे बड़े जानवरों पर इसका परीक्षण करने को लेकर उठाना था, जिनकी शारीरिक संरचना और प्रतिरक्षा प्रणाली मनुष्य के समान है। मकाऊ बंदरों को दुनियाभर में चिकित्सकीय शोध में उपयोग के लिए सबसे अच्छा गैर-मानव स्तनपायी (प्राइमेट) माना जाता है।