Puskar/Rajasthan: परम पूज्य संत श्री दिव्य मोरारी बापू ने कहा कि दुःख की अनिवार्यता-यद्यपि दुःखी होना कोई नहीं चाहता फिर भी दुःखी होता ही है, दुःखी होना पड़ता ही है. जीवन में सुख और दुःख तो लगे ही रहते हैं, इन्हें भोगना पड़ता ही है लेकिन इनको भोगने में फर्क यह होता है कि सुख भोगते समय हमें समय का पता नहीं चलता इसलिए सुख कम मालुम देता है और दुःख भोगते समय, समय लम्बा और भारी मालुम पड़ता है इसलिए दुःख ज्यादा मालुम देता है. अगर विवेक से काम लिया जाये तो दुःख की महत्ता और उपयोगिता को समझ कर दुःख की पीड़ा को दूर किया जा सकता है. इस विषय में कुछ शास्त्र वचनों और महापुरुषों के विचारों से उचित प्रेरणा ली जा सकती है.
सबसे पहले तो महाभारत के प्रणेता वेदव्यास जी महाराज का यह कथन ख्याल में ले लें कि जीवन में सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख आता ही है अर्थात् सुख-दुःख गाड़ी के पहिये की भांति घूमते ही रहते हैं. यह बात निश्चित है कि जब तक यह शरीर बना हुआ है तब तक सुख और दुःख से छुटकारा नहीं मिल सकता.
इस कठोर यथार्थ को जान लेने के बाद यह सोचना चाहिये कि दुःख का होना ऐसा अनिवार्य क्यों है? इस सवाल का जवाब भगवान बुद्ध के इस कथन से मिलता है कि दुःख की उत्पत्ति पाप से होती है अर्थात् दुःख होना, पाप कर्म का फल होना होता है.पाप संचित होना ही सारे दुःखों की जड़ है. जैसे पुण्य कर्म फलित होने से सुख मिलता है वैसे ही पाप कर्म फलित होने पर दुःख मिलता है. इसलिए कहा जाता है- जैसी करनी, वैसी भरनी. और यह कहावत गलत नहीं है.
ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा है- कितने ही कल्प क्यों न बीत जायें कर्म फल भोगे बिना जीव को कर्म बन्धन से छुटकारा नहीं मिलता. शुभ और अशुभ कर्म का फल भोगना ही पड़ता है. यह प्रकृति का अटल नियम है और अनिवार्य है.
भौतिक और आसुरी सम्पदा से सम्पन्न व्यक्ति कितना ही शक्तिशाली और समर्थ क्यों न हो, वह इस नियम को भंग नहीं कर सकता.सुख या दुःख भोगने की यही अनिवार्यता है और यही हम-सबकी मजबूरी भी. सभी हरि भक्तों को पुष्कर आश्रम एवं गोवर्धनधाम आश्रम से साधु संतों की शुभ मंगल कामना, श्री दिव्य घनश्याम धाम, श्री गोवर्धन धाम कॉलोनी, बड़ी परिक्रमा मार्ग, दानघाटी, गोवर्धन, जिला-मथुरा, (उत्तर-प्रदेश) श्री दिव्य मोरारी बापू धाम सेवा ट्रस्ट, गनाहेड़ा, पुष्कर जिला-अजमेर (राजस्थान).