प्रयागराज। राज्यों की सरकारें अपना राजनीतिक और सामाजिक समीकरण को मजबूत बनाने के लिए बिना मानक का पालन किए ही आरक्षण दे देती हैं, जो उन लोगों के साथ अन्याय है, जो आरक्षण की सीमा में नहीं आते हैं। यही कारण है कि सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय को सरकारों और राजनीतिक दलों को बार-बार नसीहत देनी पड़ती है।
हाल ही में सहायक अभियोजन अधिकारी (एपीओ) भर्ती परीक्षा में 80 प्रतिशत सीटें आरक्षित किए जाने पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जो सवाल खड़ा किया है, वह उचित है कि किसी भी परीक्षा में 80 प्रतिशत आरक्षण कैसे दिया जा सकता है, जबकि 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए जाति आधारित आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत तय कर दी थी, जो बाद में कानून भी बन गया कि 50 फीसदी से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता है, लेकिन 2019 में मोदी सरकार ने सामान्य वर्ग के लोगों को आर्थिक आधार पर दस प्रतिशत आरक्षण देने के लिए संविधान में संशोधन कर अधिकतम सीमा 50 से बढ़ाकर 60 फीसदी कर दिया है।
इसके बावजूद राजनीतिक दल लोगों को प्रभावित करने के लिए आरक्षण की तय सीमा का उल्लंघन करने से बाज नहीं आते हैं। अभी हाल में ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने प्रदेश सरकार पर तल्ख टिप्पणी करते हुए 18 ओबीसी जातियों को अनुसूचित वर्ग में शामिल करने के सम्बन्ध में जारी अधिसूचना को निरस्त कर दिया था। कमजोर वर्ग के लिए आरक्षण ठीक है, परन्तु अपना राजनीतिक हित साधने और वोट बैंक बनाने के लिए आरक्षण का सब्ज बाग दिखाया जाना कतई उचित नहीं है। सरकारों को न्यायालयों के आदेश का पालन सुनिश्चित करने के लिए वोट बैंक की राजनीति से ऊपर उठकर सबके हित में काम करना चाहिए। सरकार को हर हाल में संविधान का पालन करना होगा।