आस्था। अपने पितरों को प्रसन्न और तृप्त करने का सबसे बड़ा अवसर होता है पितृपक्ष। इसके शुरू होने के साथ ही घरों का वातावरण धार्मिक हो गया है। हालांकि समय के अनुसार प्रतिपदा शनिवार की शाम से ही लग गया लेकिन अधिकतर लोग रविवार से ही अपने पूर्वजों को पिंडदान और तर्पण करने का काम करेंगे। इसके तहत लोग अपने पूर्वज की मृत्यु की तिथि के दिन विधि विधान से पिंडदान करते है जबकि तिथि से पूर्व सुबह स्नान के बाद जौ, तिल, कुशा तथा गाय के दूध को शुद्द जल में मिला कर भगवान सूर्य को चढ़ाते है। इसे तर्पण कहा जाता है।
पितृपक्ष हिंदूओं के लिए सबसे महत्वपूर्ण समय माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि कुल खानदान के पितर इस पखवारे में पृथ्वी पर आ जाते हैं। ऐसे में परिजनों की ओर से उन्हें पिंडदान कर तृप्त किया जाता है। अपने वंशजों से पिंड प्राप्त करने के बाद पितर तृप्त होकर स्वर्ग लोक को चले जाते हैं। पितृपक्ष में पितरों को पिंडदान तथा तर्पण किया जाता है। इस के लिए लोग गंगा घाटों या शुद्ध स्थानों पर ब्राम्हणों की ओर से विधि विधान से क्रिया काई जाती है।
स्नान करने के बाद खोवा आदि का पिंड बना कर मंत्रोच्चार के बीच पितरों का आह्वान किया जाता है। इसके बाद परिजन पिंडदान कर उनसे तृप्त होने की आशा के साथ आशीर्वाद मांगते है। पिंडदान के बाद कौवा, गाय तथा कुत्ता आदि के लिए घर से ग्रास निकाल कर खिलाया जाता है। इस क्रिया के बाद पंडित जी को भोजन करा कर धन, वस्त्रादि दान दिया जाता है। इस दिन घर में भी चावल, कढ़ी सहित खास व्यंजन बनाए जाते है।
पितृपक्ष में लोग नया काम करने या नई वस्तु खरीदने या उपयोग करने से भी परहेज करते हैं। घरों में भी शुद्ध और सात्विक भोजन बनाया जाता है। मुहम्मदाबाद निवासी पंडित मनीष तिवारी ने बताया कि घर में हुई मौत के बाद अगर उस पूर्वज का जब तक गया, बद्रीनाथ आदि स्थान पर पिंडदान नहीं कर दिया जाता, तब तक वह पूरी तरह से तृप्त हो कर ब्रम्हलोक में नहीं जा पाते है। पितृपक्ष में ऐसे पूर्वज पिंड लेने के लिए धरती पर चले आते हैं। बताया कि अधिकतर लोग उसी तिथि पर पिंडदान करते हैं, जिस तिथि पर घर के पूर्वजों का निधन हुआ रहता है। तिथि को भूल गए लोग अमावस्या के दिन इस कार्यक्रम का आयोजन करते हैं।