अध्यात्म। जीवन के केवल दो ही ढंग हैं, एक संघर्ष का और दूसरा समर्पण का। अब संघर्ष का अर्थ है मनुष्य की अपनी मर्जी और समर्पण का भाव है। सृष्टि को चलाने वाले सृजनहार की रजा। अब संघर्ष मनुष्य की आम आदत है, क्योंकि इस सारे संसार में मनुष्य जो भी दुनियावी वस्तुएं प्राप्त करना चाहता है, वह इसे अधिकतर चेष्टा और संघर्ष से मिलती हैं।
उदाहरण के तौर पर यदि इसे धन कमाना हो तो बैठे बिठाए नहीं मिलेगा। इसको प्राप्त करने के लिए मेहनत और संघर्ष की आवश्यकता है, दौड़-धूप करनी होगी। इसी प्रकार यदि यश कमाना हो तो भी भागदौड़ जरूरी है। परेशानी उठानी होगी, यानी कि कोई भी सांसारिक पदार्थ पाना हो तो मेहनत और कोशिश जरूरी है।
अतः भूलवश मनुष्य इस परंपरा से यह परिणाम निकाल बैठा है कि जब छोटी से छोटी वस्तुओं की प्राप्ति के लिए संघर्ष करना पड़ता है तो इस विराट को पाने में तो इससे भी ज्यादा दौड़-धूप की जरूरत होगी । अतः मनुष्य यह भूल अपनी सांसारिक गणित को सन्मुख रखते हुए अक्सर कर बैठता है, परन्तु आध्यात्मिक जगत में बिलकुल इसके विपरीत हैं।
संसार में इन्सान को जो कुछ पाना होता है, वह परमात्मा को पीछे करके पाया जाता है यानी परमात्मा की तरफ पूरी पीठ करनी पड़ती है, इसके लिए संघर्ष चाहिए। इस सूरत में कर्ता होने के सभी कष्ट सहन करने पड़ते हैं, लेकिन परमात्मा को पाने के लिए मनुष्य की अपनी चेष्टा की जरूरत नहीं है। वास्तव में संघर्ष से अहंकार का जन्म होता है।
अत: परमार्थ में संघर्ष ऐसे ही है जैसे कोई प्राणी हवा के रुख के विपरीत चप्पू चलाकर नाव को पार करने की कोशिश में जुटा हो । दूसरे मायनों में परमार्थ में संघर्ष करने वाले मनुष्य वास्तव में इस भ्रम का शिकार होता है कि हर वस्तु अपनी इंद्रियों की मदद से प्राप्त की जा सकती है। मानो ऐसे मनुष्य भगवान से भी लड़ाई करता हुआ दिखाई देता है और अपनी आकांक्षाओं को पूरा करवाना चाहता है, चाहे इसकी कामनाओं की प्राप्ति प्रार्थना से हो।
मानों मनुष्य रावण की तरह अपने ही अहम से भारी होता चला जाता है। ऐसा मनुष्य अहंकार रूपी पत्थर अपने गले में लटकाए हुए अतः जब मनुष्य भारी होता है तो इससे दूसरों को भी चोट पहुंचती है, क्योंकि ऐसा मनुष्य हर समय आशा रखता है कि दूसरे लोग खास तौरपर इसका सत्कार करें।