केंद्रीय वन मंत्रालय ने ग्रेट निकोबार द्वीप के विकास के लिए दी सहमति

नई दिल्‍ली। केंद्रीय वन मंत्रालय ने ग्रेट निकोबार द्वीप के हरे-भरे और प्राचीन वर्षा वन का एक हिस्सा विकास कार्यों के लिए देने पर मंजूरी दे दी है। इसके लिए क्षेत्र में लगभग 8.5 लाख पेड़ काटे जाएंगे। 12 से 20 हेक्टेयर में फैले मैंग्रोव कवर और बहुमूल्य मूंगा चट्टानें भी प्रभावित होंगी, इन्हें ट्रांसलोकेट करने की बात कही गई है।

इस प्रोजेक्ट को रक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा और नागरिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उपयोगी बताया गया है। इसके तहत सैन्य-नागरिक उपयोग के लिए हवाई अड्डे, अंतर्राष्ट्रीय कंटेनर ट्रांस-शिपमेंट टर्मिनल, गैस-डीजल व सौर आधारित बिजली उत्पादन संयंत्र और टाउनशिप का निर्माण होगा। 30 मार्च को गृह मंत्रालय ने पर्यावरण मंत्रालय को पत्र लिखा था।

इस में ग्रेट निकोबार द्वीप के गांधीनगर व शास्त्री नगर क्षेत्र में विकास कार्यों और इसे भारतीय नौसेना के नियंत्रण में रखने का प्रस्ताव था। जीएनआई देश का सुदूर दक्षिणी हिस्सा है। यहां से बंगाल की खाड़ी, दक्षिण और दक्षिण-पूर्वी एशियाई सागर क्षेत्र में भारत को महत्वपूर्ण रणनीतिक नियंत्रण हासिल होता है।

प्रोजेक्ट का असर:-

  • इसका असर 1,761 स्थानीय आबादी पर होगा, जिनमें स्थानीय शोम्पेन व निकोबारी समुदाय शामिल हैं।
  • यहां जैव विविधता, कई दुर्लभ जीव व वनस्पति मौजूद हैं, इन्हें नुकसान पहुंचने की आशंका है।
  • लेदरबैक समुद्री कछुए, निकोबार मेगापॉड, निकोबार मकैक और खारे पानी के मगरमच्छ जैसे दुर्लभ जीव यहां हैं।
  • मेगापॉड के 51 सक्रिय घोंसले वाले स्थानों में से 30 स्थायी रूप से नष्ट कर दिए जाएंगे।
  • प्रोजेक्ट गलाथिया खाड़ी राष्ट्रीय उद्यान और कैम्पबेल खाड़ी राष्ट्रीय उद्यान की 10 किमी परिधि में बनेगा। लेकिन यह क्षेत्र उद्यान के पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील नहीं हैं।

तीन संस्थानों के सुझाव:-

  • तीन प्रमुख संस्थानों और एजेंसियों को प्रोजेक्ट के नुकसान का आकलन किया और इन्हें कम करने के लिए अपनी रिपोर्ट पर्यावरण मंत्रालय की विशेषज्ञ अप्रेजल समिति के पास देने को दी।
  • जूलॉजिकल सर्व ऑफ इंडिया ने बताया कि प्रोजेक्ट से ग्रेट निकोबार द्वीप में वन और जीवों को नुकसान नहीं होगा अगर इन्हें रोकने पर सख्ती से ध्यान दें।
  • भारतीय वन्यजीव संस्थान का कहना है कि लेदरबैक कछुओं को बचाने पर ज्यादा ध्यान देना होगा। चूंकि ये एक ही जगह नहीं रुकते इसलिए इन्हें जीएनआई पर दूसरी उचित जगह भेज सकते हैं, जहां वे घोंसले बना सकें। इन कछुओं पर गहन अध्ययन और स्थान विशेष के अनुसार बचाव के उपाय करने होंगे।
  • सलीम अली सेंटर फॉर आर्निथोलॉजी (पक्षी-विज्ञान) एंड नेचुरल हिस्ट्री (सेकॉन) ने नुकसान कम के सभी उपाय 10 साल में लागू करने को कहा है।
  • अंडमान-निकोबार प्रशासन के वन एवं पर्यावरण विभाग ने भी मैंग्रोव संरक्षण व प्रबंधन योजना दी है। 10 हेक्टेयर में फैली मूंगा चट्टानों की 20,668 कॉलोनियों में से 16,150 को भी ट्रांसलोकेट किया जाएगा।

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