नई दिल्ली। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के अनेक हिस्सों में एक सप्ताह के दौरान कई जगहों पर पहाड़ से मलबा गिरने की खबर मिली है। यही नहीं, कई जगहों पर भारी बारिश और पहाड़ की चट्टानों के टूटने जैसी घटनाओं के कारण भारी नुकसान के साथ जनजीवन भी बुरी तरह प्रभावित हुआ है। इन क्षेत्रों में कई राष्ट्रीय राजमार्ग समेत ग्रामीण क्षेत्रों में अनेक रास्ते लगभग बंद हुए है जिन्हें दुरुस्त करने में काफी मशक्कत करनी पड़ी।
चमोली जिले में चीन सीमा के साथ जुड़ने वाला महत्वपूर्ण मार्ग दो सप्ताह से ज्यादा बंद है, क्योंकि तमकानाला और जुम्मा में लगातार हो रहे भूस्खलन के चलते जोशीमठ और मलारी के बीच हाईवे पर यातायात बाधित है। चीन सीमा के निकट जुग्जू गांव के लोग बीते दो वर्षो से भूस्खलन से व्यापक रूप से दुष्प्रभावित हैं। यह भोटिया जनजाति का गांव है और यहां लोग पूरी बरसात गुफाओं में बिताते हैं, क्योंकि यहां बरसात के साथ पहाड़ से चट्टानों के गिरने की घटनाएं लगभग प्रतिदिन होती है।
उत्तराखंड सरकार के आपदा प्रबंधन विभाग और विश्व बैंक ने वर्ष 2018 में एक अध्ययन करवाया था। इस अध्ययन के अनुसार इस राज्य में 6300 से अधिक स्थान भूस्खलन जोन के रूप में चिन्हित किए गए हैं। एक संबंधित रिपोर्ट में बताया गया है कि राज्य में चल रही हजारों करोड़ रुपये की विकास परियोजनाएं पहाड़ों को काट कर या फिर जंगलों को उजाड़ कर बन रही हैं और इसी कारण से भूस्खलन जोन की संख्या बढ़ रही है।
पहाड़ पर निर्माण : प्रकृति में जिस पहाड़ के निर्माण में कई हजार वर्ष लगते हैं, हमारा समाज उसे उन निर्माणों की सामग्री जुटाने के नाम पर तोड़ देता है जो बमुश्किल सौ साल चलते हैं। पहाड़ केवल पत्थर के ढेर नहीं होते, वे इलाके के जंगल, जल और वायु की दशा और दिशा तय करने के साध्य होते हैं। जहां सरकार पहाड़ के प्रति बेपरवाह है तो वहीं पहाड़ की नाराजगी भी समय-समय पर सामने आ रही है। यदि धरती पर जीवन के लिए वृक्ष अनिवार्य है तो वृक्ष के लिए पहाड़ का अस्तित्व बेहद जरूरी है।
वृक्ष से पानी, पानी से अन्न तथा अन्न से जीवन मिलता है। वैश्विक तापन और जलवायु परिवर्तन की विश्वव्यापी समस्या का जन्म भी जंगल उजाड़ दिए गए पहाड़ों से ही हुआ है। यह विडंबना है कि आम भारतीय के लिए पहाड़ पर्यटन स्थल है या फिर उसके कस्बे का पहाड़ एक डरावनी सी उपेक्षित संरचना।
हिमालय भारतीय उपमहाद्धीप के जल का मुख्य आधार है। नीति आयोग के विज्ञान और प्रोद्योगिकी विभाग द्वारा तीन साल पहले तैयार जल संरक्षण पर आई रिपोर्ट में बताया गया था कि हिमालय से निकलने वाली 60 प्रतिशत जलधाराओं में दिनों-दिन पानी की मात्र कम हो रही है।
ग्लोबल वार्मिग या धरती का गरम होना, कार्बन उत्सर्जन, जलवायु परिवर्तन और इसके दुष्परिणामस्वरूप धरती के शीतलीकरण का काम कर रहे ग्लेशियरों पर आ रहे भयंकर संकट व उसके कारण समूची धरती के अस्तित्व के खतरे की बातें अब महज कुछ पर्यावरण विषेशज्ञों तक सीमित नहीं रह गई हैं।
कुछ ऐसे दावों के दूसरे पहलू भी सामने आने लगे कि जल्द ही हिमालय के ग्लेशियर पिघल जाएंगे जिसके चलते नदियों में पानी बढ़ेगा और उसके परिणामस्वरूप कई नगर-गांव जल मग्न हो जाएंगे। वहीं धरती के बढ़ते तापमान को थामने वाली छतरी के नष्ट होने से भयानक सूखा, बाढ़ व गरमी पड़ेगी। जाहिर है कि ऐसे हालात में मानव-जीवन पर भी संकट होगा।