दीक्षा का मतलब है गुरु के प्रति अपनी आत्मा जैसा स्नेह: दिव्य मोरारी बापू

पुष्कर/राजस्थान। परम पूज्य संत श्री दिव्य मोरारी बापू ने कहा, ईश्वर की ओर चलने के लिये सबसे पहले गुरु बनाओ और गुरु बनाने का मतलब सिर्फ मंत्र ले लेना नहीं है, और यह बात भी ध्यान रखनी है कि गुरु किसे बनाना है? गुरु बनाते समय दो सालों का ध्यान रखना है। गुरु विद्वान हो और गुरु तपस्वी हो, जो सदा भजन में लगा रहता हो और शास्त्रों का ज्ञाता हो। शास्त्रों का ज्ञाता होगा तो आपके संशय निकाल देगा और तपस्वी होगा तो ईश्वर से मिला देगा। शिष्य के अंदर भी यह भावना नहीं होनी चाहिए कि सिर्फ दीक्षा ले लो, उससे काम नहीं बनेगा। दीक्षा का मतलब होता है कि गुरु के प्रति अपनी आत्मा जैसा स्नेह हो। संत से उतना स्नेह करना, जितना अपनी आत्मा से स्नेहमय करते हो गुरु से इतना स्नेह करना। जितना गोविंद से स्नेह करते हो दीक्षा लेने के बाद गुरु के सानिध्य में रहकर आचार-विचार की शिक्षा प्राप्त करनी है। और सत्संग करते हुए धीरे-धीरे कुसंग से बचना है। दया, मित्रता, नम्रता, पवित्रता, प्राणी मात्र के प्रति दया, तपस्या, सुख दुःख सहने की शक्ति, मौन, स्वाध्याय, अहिंसा, सरलता, ब्रम्हचर्य, इन सबको जीवन में अपना लो, एक व्यक्ति कहता है कि मैं दीक्षा तो लेना चाहता हूं, लेकिन मदिरापान करता हूं, पीना नहीं छोडूंगा। जब स्वयं संग ही सोचते हो कि पीना नहीं छोड़ना अर्थात् भगवान से भी कीमती व्यसन हो गया। आप दोष छोड़ना नहीं चाहते, इसका मतलब है कि भगवान को प्राप्त करने की आप में अभी तीव्र लालसा नहीं है। कोई कन्या है जो पति का स्नेह पाना चाहती है, लेकिन मायका छोड़ना नहीं चाहती। जैसे पति का स्नेह पाने के लिए मायका छोड़ना पड़ता है, उसी तरह ईश्वर को पाने के लिए जीवन में दोष को भी धीरे-धीरे छोड़ना पड़ता है। सभी हरि भक्तों के लिए पुष्कर आश्रम एवं गोवर्धन धाम आश्रम से साधू संतों की शुभ मंगल कामना। श्री दिव्य घनश्याम धाम, श्री गोवर्धन धाम कालोनी, दानघाटी, बड़ी परिक्रमा मार्ग, गोवर्धन, जिला-मथुरा, (उत्तर-प्रदेश) श्री दिव्य मोरारी बापू धाम सेवाट्रस्ट गनाहेड़ा पुष्कर जिला-अजमेर (राजस्थान)

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