पुष्कर/राजस्थान। परम पूज्य संत श्री दिव्य मोरारी बापू ने कहा कि मनुष्य का जीवन भावना प्रधान है। आप अपने मन में जैसे विचार करेंगे, वैसे ही आपका मन बनता जायेगा। आपके विचारों को कभी न कभी मूर्तरूप अवश्य मिल जायेगा। जिन्ह के रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी। वस्तु के प्रति आपकी भावना प्रधान है। हम मन में जैसा भाव रख लें, हमारा स्वरूप वैसा ही बन जाता है। दुनियां में न किसी को ईश्वर दुःख देता है, न देवता, न पड़ोसी, न भाई, न बहन, मनुष्य को दुःख देने वाला केवल मन है। आपको दुःख देने वाला आपका मन है। अगर पुत्री मां को दो-चार शब्द कठोर कह दे, तो मां को बुरा नहीं लगता और पुत्रवधू कह दे तो पूरे शरीर में आग लग जायेगी। क्या पुत्री के कठोर शब्द और पुत्र वधू के कठोर शब्द में कुछ अंतर हुआ? शब्द तो वही हैं। एक जगह ममता है मेरी पुत्री है और दूसरी जगह है कि यह दूसरे घर से आयी हुई है,बस इतना ही है। शब्द में क्या अंतर है? केवल मन की एक कल्पना है। शास्त्र कहते हैं कि कल्पना अगर करनी है, तो खराब मत करो। अच्छी कल्पना करोगे तो फिर तुम्हारे मन पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा। विभीषण श्रीरामजी की शरण में जा रहे हैं, कल्पना करते हुए जा रहे हैं कि- भगवान का दर्शन होगा और उन्हें भगवान का दर्शन हुआ। श्रीरामचरितमानस में रावण ने प्रभु श्री राम का नाम नहीं लिया। कभी तपस्वी कहता था, कभी राजकुमार कहता था।उसने सोचा जब राम का रूप बनाने से मेरा मन बदल गया, तो हो सकता है राम मुख से निकले और मेरा मन बदल जाय, फिर ये राक्षस बिचारे नरक जायेंगे, पहले समस्त राक्षसों का भगवान के हांथो उद्धार हो, फिर राम कह के मरूंगा मेरा भी उद्धार हो जायेगा। सभी राक्षसों का श्री राम दर्शन करते-करते शरीर त्यागने से उद्धार हो गया। आखरी में रावण भी प्रभु श्री राम का नाम पुकारा और उसका भी उद्धार हो गया। प्रभु श्री राम लंका विजय के बाद श्रीसीता, लक्ष्मण के साथ अयोध्या पधारे। भगवान् श्री राम का राज्याभिषेक हुआ। कौशल्या मां ने भगवान् श्री राम की आरती की। प्रभु श्री राम रघुकुल कमल के लिए सूर्य के समान है। भगवान् श्री राम के राज्य में दैहिक, दैविक, भौतिक त्रिविध ताप समाप्त हो गये, किसी को व्याप्त नहीं होते। सब लोग आपस में मिल जुल कर रहते थे। अपने-अपने धर्म का पालन करते थे। राम राज्य में पिता के सामने पुत्र की मृत्यु नहीं हुई। पिता के सामने पुत्र की मृत्यु न होना, ये सुयोग्य राजा के लक्षण है। जब तक व्यक्ति समाप्त होना न चाहे, तब तक यमराज किसी को लेने नहीं आयेगा। श्री तुलसीदास जी महाराज ने रामायण के समापन पर कहा- प्रभु दुनियां में मेरी तरह कोई दीन नहीं और आपकी तरह कोई दीनबंधु नहीं। इसलिए प्रभु, मैं आपको प्रणाम करता हूं। मेरी भवभीर आप हर लो। श्री रामचरितमानस पुण्यमय ग्रंथ है। पाप को हरने वाला है। विज्ञान भक्ति को बढ़ाने वाला है। शांति और सुख देने वाला है। जो रामायण रूपी सरोवर में गोता लगाते हैं, उनके पाप धुल जाते हैं। अखंड शांति की प्राप्ति होती है।सभी हरि भक्तों के लिए पुष्कर आश्रम एवं गोवर्धन धाम आश्रम से साधू संतों की शुभ मंगल कामना।