रोचक जानकारी। हिन्दू धर्म में साधू-संतों का बहुत महत्व होता है। साधू-संत भौतिक सुखों का त्याग कर धर्म और सत्य के मार्ग पर निकल जाते हैं। इसके साथ ही उनकी वेशभूषा और खान-पान आम लोगों से बिल्कुल अलग होती है। उनको ईश्वर की प्राप्ति का माध्यम माना जाता है। साधू-संत आमतौर पर पीला, केसरिया या लाल रंगों के वस्त्र धारण करते हैं।
साधू-संत को ईश्वर के सबसे निकट माना जाता है। संन्यासी अपने पूरे सांसारिक जीवन का त्याग कर देता है और अपना समय भगवान का नाम स्मरण करने में लगाता है। साधू-संतों में नागा साधुओं की चर्चा अवश्य होती है। सबसे खास बात यह है कि नागा साधू कपड़े नहीं धारण करते हैं। वह कड़ाकी ठंड में भी नग्न अवस्था में ही रहते हैं। वह शरीर पर धुनी या भस्म लगाकर घूमते हैं। नागा का मतलब होता है नग्न। नागा संन्यासी पूरा जीवन नग्न अवस्था में ही रहते हैं। वह अपने आपको भगवान का दूत मानते हैं। तो आइए नागा साधुओं के बारे कुछ रहस्यमयी बातें जानते हैं।
नागा संन्यासी बनने की प्रक्रिया बहुत लंबी और कठिन मानी जाती है। अखाड़ों द्वारा नागा संन्यासी बनाया जाता है। हर अखाडे़ की अपनी मान्यता और पंरपरा होती है और उसी के मुताबिक उनको दीक्षा दी जाती है। कई अखाड़ों में नागा साधुओं को भुट्टो के नाम से भी बुलाया जाता है। अखाड़े में शामिल होने के बाद इनको गुरु सेवा के साथ सभी छोटे काम करने के लिए दिए जाते हैं। नागा साधुओं का जीवन बहुत ही कठिन होता है। कहा जाता है कि किसी भी इंसान को नागा साधू बनने में 12 वर्ष का लंबा समय लगता है। नागा साधू बनने के बाद वह गांव या शहर की भीड़भाड़ भरी जिंदगी को त्याग देते हैं और रहने के लिए पहाड़ों पर जंगलों में चले जाते हैं। उनका ठिकाना उस जगह पर होता है, जहां कोई भी न आता जाता हो।
नागा साधू बनने की प्रक्रिया में 6 वर्ष बेहद महत्वपूर्ण होता है। इस दौरान वह नागा साधू बनने के लिए आवश्यक जानकारी हासिल करते हैं। इस अवधि में वह सिर्फ लंगोट पहनते हैं। वह कुंभ मेले में प्रण लेते हैं जिसके बाद लंगोट को भी त्याग देते हैं और पूरा जीवन कपड़ा धारण नहीं करते हैं। नागा साधू बनने की प्रक्रिया की शुरुआत में सबसे पहले ब्रह्मचर्य की शिक्षा लेनी होती है। इसमें सफलता प्राप्त करने के बाद महापुरुष दीक्षा दी जाती है। इसके बाद यज्ञोपवीत होता है। इस प्रकिया को पूरी करने के बाद वह अपना और अपने परिवार का पिंडदान करते हैं जिसे बिजवान कहा जाता है।
वह 17 पिंडदान करते हैं जिसमें 16 अपने परिजनों का और 17 वां खुद का पिंडदान होता है। अपना पिंडदान करने के बाद वह अपने आप को मृत सामान घोषित करते हैं जिसके बाद उनके पूर्व जन्म समाप्त माना जाता है। पिंडदान के बाद वह जनेऊ, गोत्र सहित उनके पूर्व जन्म की सारी निशानियां मिटा दी जाती हैं। इसकी वजह से नागा साधुओं के लिए सांसारिक जीवन का कोई महत्व नहीं होता है। नागा संन्यासी अपने समुदाय को ही अपना परिवार मानते हैं। वह कुटिया बनाकर रहते हैं और इनकी कोई विशेष जगह और घर नहीं होता है। सबसे बड़ी बात यह है कि नागा साधू सोने के लिए बिस्तर का प्रयोग नहीं करते हैं।
नागा साधुओं को एक दिन में सिर्फ सात घरों से भिक्षा मांगने की इजाजत होती है। अगर उनको इन घरों में भिक्षा नहीं मिलती है, तो उनको भूखा ही रहना पड़ता है। नागा संन्यासी दिन में सिर्फ एक बार ही भोजन करते हैं। नागा साधू हमेशा नग्न अवस्था में रहते हैं और युद्ध कला में पारंगत होते हैं। यह अलग-अलग अखाड़ों में रहते हैं। जुना अखाड़े में सबसे ज्यादा नागा संन्यासी रहते हैं। आदिगुरु शंकराचार्य ने अखाड़े में नागा साधुओं के रहने की परंपरा की शुरुआत की थी। कहा जाता है कि नागा साधुओं के पास रहस्यमयी शक्तियां होती है। वह कठोर तपस्या करने के बाद इन शक्तियों को हासिल करते हैं। लेकिन कहा जाता है कि वह कभी भी अपनी इन शक्तियों का गलत प्रयोग नहीं करते हैं। वह अपनी शक्तियों से लोगों की समस्याओं का समाधान करते हैं।
सनातन धर्म में किसी भी इंसान की मौत के बाद उसके मृत शरीर को जलाने की प्रथा है जो सदियों से चली आ रही है। लेकिन नागा साधुओं के शव को नहीं जलाया जाता है। नागा संन्यासियों का मृत्यू के बाद भू-समाधि देकर अंतिम संस्कार किया जाता है। नागा साधुओं को सिद्ध योग की मुद्रा में बैठाकर भू-समाधि दी जाती है।