नई दिल्ली। देश भर के न्यायालयों में लंबे समय से विचाराधीन मामलों को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने काफी तल्ख टिप्पड़ी की है। तीस- चालीस साल से लटके मामलों को गंभीरता से लेते हुए इलाहाबाद, पटना, मध्यप्रदेश, राजस्थान और बाम्बे समेत सात उच्च न्यायालयों से विस्तृत रिपोर्ट मांग कर इन मामलों के लंबित होने का कारण पूछा गया।
शीर्ष न्यायालय की चिन्ता पूरी तरह मानवीय संवेदना पर आधारित है। न्यायमूर्ति एल. नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति बी.आर. गवई की पीठ ने उच्च न्यायालयों से बड़ी संख्या में लम्बित मुकदमों के निबटाने की कार्य योजना मांगी है। साथ ही सजा के खिलाफ सुनवाई का इन्तजार कर रहे दोषियों की सूची भी उपलब्ध कराने का निर्देश दिया है।
मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय में अपीलें 20 से 30 साल तक की लम्बित हैं, वहीं इलाहाबाद उच्च न्यायालय में सबसे पुरानी अपीलें 1980 से लम्बित है। पीड़ित इस उम्मींद पर न्यायालय पहुंचता है कि उसे न्याय मिलेगा। उसे न्यायालय पर भरोसा है लेकिन जब सुनवाई शुरू होने में ही इतना विलम्ब होगा तो न्याय का औचित्य ही क्या रह जायगा।
न्याय में देरी न्यायिक प्रक्रिया की लचर व्यवस्था का परिणाम है। इसे पूरी तरह बदलने की जरूरत है, ताकि लोगों का कानून पर विश्वास बना रहे। शीर्ष न्यायालय का यह कहना कानूनी प्रक्रिया को कटघरे में खड़ा करता है कि यह हैरान करने वाली बात है कि दोषी ने 1980 में अपील की और अब तक उस पर सुनवाई नहीं हुई।
यदि अपील करने वाला उस समय 40 साल का रहा हो तो अब उसकी उम्र 80 साल से ज्यादा होगी। अब बड़ा प्रश्न यह है कि उसके सलाखों के पीछे 40 साल के बहुमूल्य जीवन का जिम्मेदार कौन है। यह तो सीधे मानवाधिकार का उल्लंघन है। इससे संविधान के अनुच्छेद-21 में मिला तेजी से सुनवाई का अधिकार प्रभावित होता है। पीठ का ऐसे मामलों में राज्यों के वकीलों के अलावा सालिसिटर जनरल से कोर्ट की मदद करने के लिए कहना मानवता की मिसाल है।